IDEA Roundtable: FIXING DELHI’s POLLUTION
The problem of pollution over Delhi is now well known, the solutions are also fairly well understood among some circles but not everywhere. The pollution ‘season’ is here when Delhi and almost all of north India will be enveloped in a toxic haze for days and weeks. This is also the time when under public pressure governments at the centre and state level are most likely to make some decisions.
Climate Trends and Indicus Foundation organised a roundtable with a panel of key experts and decision makers to help us frame a crisp, coherent and comprehensive document of actions for addressing the pollution problem over Delhi.
दिल्ली का वायु प्रदूषण अब जगजाहिर समस्या है। इसके समाधानों के बारे में भी कुछ लोगों को जानकारी है, मगर व्यापक रूप से इनकी जानकारी की कमी है। प्रदूषण का ‘मौसम’ तब शुरू होता है जब जहरीली धुंध दिल्ली समेत लगभग पूरे उत्तर भारत को कई हफ्तों तक अपनी आगोश में ले लेती है। यह ऐसा समय भी है जब जनता के दबाव के चलते केन्द्र और राज्य सरकारें इस मुसीबत से निपटने के लिये कुछ निर्णय ले सकती हैं।
क्लाइमेट ट्रेंड्स और इंडिकस फाउंडेशन ने दिल्ली में प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिये एक सुगठित, सुसंगत और विस्तृत कार्ययोजना तैयार करने में मदद के लिये विशेषज्ञों और नीति निर्धारकों के पैनल की एक राउंडटेबल कांफ्रेंस ‘फिक्सिंग डेल्हीज़ पॉल्यूशन’ आयोजित की।
इन कांफ्रेंस में सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनवॉयरमेंट (सीएसई) की रिसर्च एण्ड एडवोकेसी की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अनुमिता रॉय चौधरी, इंटरनेशनल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट में सीनियर इंफ्रास्ट्रक्चर एडवाइजर जगन शाह, यूनाइटेड रेजिडेंट्स ज्वाइंट एक्शन के अध्यक्ष अतुल गोयल, क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला, आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में प्रोफेसर गजाला हबीब, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति में वरिष्ठ वैज्ञानिक मोहन पी. जॉर्ज, लैप्पीरांता यूनीवर्सिटी आफ टेक्नॉलॉजी के डॉक्टरोल स्टूडेंट मनीष राम, इंडिकस फाउंडेशन के निदेशक लवीश भंडारी, सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल हेल्थ की उपनिदेशक पूर्णिमा प्रभाकरण, एनवायरो लीगल डिफेंस फर्म के पार्टनर संजय उपाध्याय और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के फेलो संतोष हरीश ने हिस्सा लिया।
लोग चुनाव में प्रदूषण के मुद्दे पर जरा भी ध्यान नहीं देते
कांफ्रेंस में विशेषज्ञों ने कहा कि क्रियान्वयन और जवाबदेही तय करने के तंत्र में कमी, प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी विभिन्न इकाइयों के कार्य क्षेत्र और कार्याधिकारों को लेकर आपसी टकराव के साथ-साथ वायु प्रदूषण के कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाने और समस्या की असल तीव्रता का अंदाजा लगाने के लिये डेटा उपलब्ध कराने का व्यापक नेटवर्क न होने की वजह से हालात में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है। लोग प्रदूषण के बारे में बात तो करते हैं लेकिन जब वोट देने की बात आती है तो इस मुद्दे पर जरा भी ध्यान नहीं देते। प्रदूषण को लेकर जागरूकता जरूर बढ़ रही है लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है।
विशेषज्ञों ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद देश के 400 से ज्यादा थर्मल पॉवर प्लांट्स में प्रदूषण नियंत्रण के नये नियमों के मुताबिक बदलाव अब तक मुकम्मल नहीं हो पाये हैं। पहले यह काम वर्ष 2017 तक कर लिया जाना था। बाद में इसे बढ़ाकर 2019 कर दिया गया। उसके बाद इस समयसीमा को वर्ष 2022 और अब 2024 कर दिया गया है।
‘न्यू जेनरेशन इंटरवेंशन’ की कमी
(सीएसई) की रिसर्च एण्ड एडवोकेसी की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अनुमिता रॉय चौधरी ने कहा कि यह सच है कि हम हवा को साफ करने के लिये आर्थिक गतिविधियों से समझौता नहीं कर सकते। हमें यह समझना होगा कि हम अब भी कुछ क्षेत्रों में कोयले का इस्तेमाल कर रहे हैं। नीतिगत फैसले लिये गये हैं लेकिन हम उनका बेहतर क्रियान्वयन नहीं कर पा रहे हैं। सारे नियम-कायदे मौजूद हैं और उनसे जुड़े संस्थान भी हैं, फिर हमें प्रदूषण को कम करने में दिक्कत हो रही है। कहीं न कहीं ‘न्यू जेनरेशन इंटरवेंशन’ की कमी है। इसके विकेन्द्रीकरण की जरूरत है जो कि हम अभी तक नहीं कर पाए हैं।
उन्होंने कहा
‘‘विस्तृत दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए हमारे पास दक्षता बढ़ाने का कोई तंत्र नहीं बन पाया हैा हमें ग्रीन रिकवरी और वित्तीय रणनीति के बारे में सोचना होगा। दिल्ली सरकार ने रीसायकल मटेरियल की इकाइयां लगाई है लेकिन इनका कोई बाजार नहीं है। हमें यह देखना होगा कि प्रमुख बाधाएं कहां पर हैं हमें इस वक्त सही दिशा में कदम बढ़ाने की जरूरत है।’’
निष्प्रभावी हो रहे अदालती आदेश
एनवायरो लीगल डिफेंस फर्म के पार्टनर संजय उपाध्याय ने कहा ‘‘अनेक अदालती आदेशों के बावजूद हम जमीन पर कोई बदलाव होते नहीं देख पा रहे हैं। बातचीत में एक कमी इस बात की है कि वर्ष 1981 के एयर पॉल्यूशन एक्ट के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं होती है। अदालत के फैसले तो बदलते रहते हैं लेकिन कानून एक ऐसी चीज है जो सुनिश्चित है। क्या हम इस कानून को लागू करने के लिए गंभीर कदम या रवैया नहीं अपना सकते हैं? सरकारों द्वारा गठित समितियां जैसे कि सेंट्रल मॉनिटरिंग कमिटी, लोकल लेवल मॉनिटरिंग कमेटियां कुछ कारणों से वह यह नहीं देख पा रही है कि वह आखिर कर क्या रही हैं।’’
उन्होंने कहा
‘‘चीजों में संस्थागत स्पष्टता नहीं है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एक नियामक संस्था है या फिर आंकड़े एकत्र करने वाली संस्थान, इस बात को लेकर काफी भ्रम की स्थिति है। नियामक संस्था का काम डेटा कलेक्शन करने वाली संस्था से बहुत अलग होता है। क्रियान्वयन कराने के लिये अंतिम रूप से तो जिलाधिकारी और पुलिस जिम्मेदार होती है लेकिन कहीं न कहीं वे अपनी इस जिम्मेदारी को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। एनजीटी ने पिछले दो सालों के दौरान करीब 700 कमेटियां गठित की हैं और असल समस्या यही है कि उनके कार्यक्षेत्र एक-दूसरे में कहीं न कहीं हस्तक्षेप करते हैं। जब तक हम संस्थाओं की भूमिका को लेकर स्पष्ट नहीं होते हैं तब तक हम समस्या का समाधान नहीं कर सकते।’’
दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति में वरिष्ठ वैज्ञानिक मोहन पी. जॉर्ज ने इस मौके पर कहा ‘‘स्टेट बोर्ड के रूप में हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम अपने स्टाफ को प्रदूषण सम्बन्धी डेटा के दक्षतापूर्ण विश्लेषण के लिये प्रशिक्षित नहीं कर पा रहे हैं। हमारा 90% समय तो शिकायतें निपटाने में ही खर्च हो जाता है। यह काम भी जरूरी है लेकिन हम बाकी काम नहीं कर पा रहे हैं। हम अपने लोगों को प्रशिक्षित करने के लिये जरूरी तंत्र विकसित नहीं कर पा रहे हैं।’’
यूनाइटेड रेजिडेंट्स ज्वाइंट एक्शन (ऊर्जा) के अध्यक्ष अतुल गोयल ने इस मौके पर कहा कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड राज्य बोर्डों को अपनी-अपनी योजना के हिसाब से सोचने की शक्ति नहीं दे पाया है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को स्थानीय स्तर पर प्रदूषण से निपटने के लिए सटीक रणनीतियां बनानी होंगी। समस्या यह है कि हमारे पास कोई समयबद्ध लक्षित कार्ययोजना नहीं है। पिछले साल दीपावली पर उच्चतम न्यायालय ने सिर्फ ‘ग्रीन पटाखों’ की ही बिक्री की अनुमति दी थी, मगर उसके बावजूद अन्य किस्म के पटाखे बाजार में क्यों बेचे गए। इस सबको रोकने के लिये हमें संस्थाओं के मूलभूत उद्देश्यों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।
इंटरनेशनल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट में सीनियर इंफ्रास्ट्रक्चर एडवाइजर जगन शाह ने कहा कि सभी तरह की विशेषज्ञता उपलब्ध है लेकिन इसके बावजूद दिल्ली के प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया जा पा रहा है। दरअसल हमें स्मार्ट समाधानों की जरूरत है। प्रौद्योगिकी के जरिए समस्या को समझना, उसका विश्लेषण करना और उसके समाधानों की योजना बनाना बहुत जरूरी है। सरकार और समाज के अंदर इतना विश्वास होना चाहिए कि अगर उसे कोई नियम लागू करना है तो वह 100 फीसद ऐसा कर सकेगा। मगर ऐसा नहीं है। यहीं पर सबसे बड़ी कमी है। प्रदूषण के मौजूदा हालात दरअसल एक सामूहिक नाकामी है। अगर हम भागीदारीपूर्ण सामूहिक निर्णय प्रणाली बनाते हैं तो इससे समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकता है। हमें एक ‘कलेक्टिव डिसीजन सपोर्ट सिस्टम’ बनाना होगा।
उन्होंने कहा कि सरकार को यह समझना होगा कि भले ही हमारे पास किल्लत को लेकिन हमें फिर भी समाधान देना ही होगा। हमारे पास नॉलेज है डेटा है लेकिन उसके बाद भी हम मुश्किल का हल नहीं निकाल पा रहे हैं। मुख्य समस्या यह है कि हमारे पास वह तंत्र ही नहीं है जिससे हम समाधान दे सकें।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो संतोष हरीश ने कहा कि वायु गुणवत्ता प्रबंधन से जुड़े फैसले लेने के लिये बहुत से केन्द्र हैं। इनमें से कुछ दिल्ली सरकार और कुछ केंद्र सरकार के पास हैं। अक्सर सरकारों के बीच टकराव होता है। प्रदूषण से निपटने के लिए सटीक तालमेल और सहयोग की जरूरत है। सरकारें अक्सर प्रदूषण के मामले में जो भी कदम उठाती हैं वे आमतौर पर अदालतों के दबाव में उठाती हैं। यह चुनौती हमारे सामने लगातार डटी हुई है। हम सभी जानते हैं कि इसे खत्म करना दरअसल बहुत मुश्किल है।
उन्होंने कहा कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिये एक ठोस तंत्र बनाना होगा। इसके लिये हमें इस मुद्दे को राजनीतिक आपात स्थिति वाला मुद्दा बनाना होगा।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में प्रोफेसर गजाला हबीब ने कहा कि एयरोसोल प्रदूषण सबसे गंभीर समस्या है। सड़क की धूल और वाहनों का धुआं बड़ा योगदानकर्ता है लेकिन अगर आप घर के अंदर है तो आप द्वितीयक प्रदूषण के ज्यादा खतरे से घिरे हुए हैं। हमें प्राथमिक प्रदूषण को नियंत्रित करना होगा। हमारे पास वायु प्रदूषण को स्रोत से ही रोकने की तकनीक है लेकिन उसे लागू करने के मामले में समस्या है। हमारे पास डीजल पार्टिकुलेट फिल्टर है और सार्वजनिक परिवहन वाहनों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने की तकनीक उपलब्ध है लेकिन सारा दारोमदार क्रियान्वयन पर होता है। हमें इस पर नजर रखनी होगी कि टेक्नोलॉजी का क्रियान्वयन सही से हो रहा है या नहीं। कोई ना कोई दंडात्मक कार्यवाही सुनिश्चित होनी चाहिए और उसका प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन भी होना चाहिए।
एक बहुआयामी परेशानी है वायु प्रदूषण
लैप्पीरांता यूनीवर्सिटी आफ टेक्नॉलॉजी के डॉक्टरोल स्टूडेंट मनीष राम ने कहा कि हम सभी जानते हैं कि वायु प्रदूषण एक बहुआयामी परेशानी है। प्रदूषण के मामले में दिल्ली एक अनोखा मामला है। दिल्ली का मौसम अपने पड़ोसी राज्यों में होने वाली गतिविधियों से काफी ज्यादा प्रभावित होता है। दिल्ली को इलेक्ट्रिक मोटर नीति से शुरुआत करनी होगी। जब तक ऐसी रणनीतियां नहीं बनेंगी और राज्य में इलेक्ट्रिक मोटर के संयंत्रों में निवेश के लिये काम नहीं किया जाएगा तब तक दिल्ली बिजली के लिए अपने पड़ोसी राज्यों पर निर्भर करेगी।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा
‘‘वायु प्रदूषण से निपटने के लिये हमें स्वच्छ हवा की मांग को बुलंद करना होगा। हमने पूरे देश में कुछ सर्वे किए हैं। इनमें दिल्ली के करीब 300 लोगों से पूछा गया तो उनमें से करीब 80 प्रतिशत ने कहा कि वे ‘वर्क फ्रॉम होम’ ही करना चाहते हैं और अपनी गाडि़यां बाहर नहीं निकालना चाहते। मेरा मानना है कि इससे वायु की गुणवत्ता अच्छी होगी और समस्या का कुछ हद तक समाधान हो सकेगा।’’
उन्होंने कहा हम अगले दो-तीन महीने में वायु प्रदूषण के लिहाज से बेहद मुश्किल दौर में पहुंचने वाले हैं लेकिन दरअसल प्रदूषण की समस्या साल भर बनी रहती है। जहां मीडिया ने इस मुद्दे पर बहुत सी रिपोर्टिंग की है। आईआईटी कानपुर ने ‘रियल टाइम सोर्स अपॉर्शनमेंट स्टडी’ की है। मीडिया को इस बात को लगातार जोर देकर कहना होगा कि प्रदूषण निरंतर बनी रहने वाली समस्या है और इसके लिए हमें एक जनमत बनाना होगा।
सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल हेल्थ की उपनिदेशक पूर्णिमा प्रभाकरण ने कहा कि वायु प्रदूषण पर हम पहली बार चर्चा नहीं कर रहे हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि समस्या लगातार विकराल होती जा रही है। दरअसल प्रदूषण सम्बन्धी डेटा की कमी की वजह से समाज और सरकार हालात की गम्भीरता को समझ नहीं पा रहे हैं। प्रदूषण के आंकड़े ही बहुत सीमित मात्रा में हासिल हो रहे हैं जबकि इसके कारण पड़ रहे विभिन्न प्रभावों के आंकड़े एकत्र करने का कोई प्रभावी तंत्र अब तक विकसित नहीं हो सका है। हमें प्रदूषण सम्बन्धी डेटा के साथ-साथ ‘एक्स्पोज़र डेटा’ की भी जरूरत है। समस्या बेहद गम्भीर है लेकिन हमारे पास आंकड़े एकत्र करने का इतना व्यापक तंत्र नहीं है कि समस्या की असल गम्भीरता का अंदाजा लगाया जा सके।
इंडिकस फाउंडेशन के निदेशक लवीश भंडारी ने इस मौके पर कहा
‘‘मैं यह बताना चाहता हूं कि हाल में दिल्ली में सरकार बहुत ही विस्तृत कार्ययोजना लेकर आयी है लेकिन इसमें संस्थागत निर्माण के पहलू का अभाव है। इस कमी को दूर करने के साथ-साथ सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि क्या इस कार्ययोजना को वाकई प्रभावी ढंग से लागू किया जाएगा।
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